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प्राकृतिक कृषि

Cow-based Farming: भारत में गौ आधारित खेती और उससे लाभ के ये हैं साक्षात प्रमाण

Cow-based Farming: भारत में गौ आधारित खेती और उससे लाभ के ये हैं साक्षात प्रमाण

दूध की नदियां बहाने वाला देश और सोने की चिड़िया उपनामों से विख्यात, भारत देश के अंग्रेजों के राज में इंडिया कंट्री बनने के बाद, देश में सनातन शिक्षा विधि, स्वास्थ्य रक्षा, कृषि तरीकों एवं सांस्कृतिक विरासत का व्यापक पतन हुआ है।

आलम यह है कि, कालगणना (कैलेंडर), ऋतु चक्र जैसे विज्ञान से दुनिया को परिचित कराने वाले देश में, आज गौ आधारित प्राकृतिक कृषि को अपनाने के लिए लोगों को प्रेरित करना पड़ रहा है।

घर-घर गौपालन करने वाले भारत में सरकार को सार्वजनिक गौशाला बनाना पड़ रही हैं। पुरातन इतिहास में एक नहीं बल्कि ऐसे कई प्रमाण हैं कि कृषि प्रधान भारत में गौ आधारित कृषि को विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया था। जैविक तरीकों की आधुनिक खेती में अब गौवंश के महत्व को स्वीकारते हुए, गौमूत्र एवं गाय के गोबर का प्रचुरता से उपयोग किया जा रहा है।

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सरकारें भी गौपालन के लिए नागरिक एवं कृषकों को प्रेरित कर रही हैं। छत्तीसगढ़ सरकार ने तो किसान एवं पंचायत समितियों से गौमूत्र एवं गाय का गोबर खरीदने तक की योजना को प्रदेश मे लागू कर दिया है।

क्यों पूजनीय है गौमाता

गौमाता के नाम से सम्मानित गाय को भारत में पूजनीय माना जाता है। हिंदू धर्म के अनुसार गाय में 33 करोड़ देवताओं का वास मानकर गौमाता की पूजा अर्चना की जाती है। प्रमुख त्यौहारों खासकर दीपावली के दिन एवं अन्नकूुट पर गाय का विशिष्ट श्रृंगार कर पूजन करने का भारत में विधान है।

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हिंदू पूजन विधियों में गौमय (गोबर) तथा गोमूत्र को भारतीय पवित्र और बहुगुणी मानते हैं। गाय के गोबर से बने कंडों का हवन में उपयोग किया जाता है। वातावरण शुद्धि में इसके कारगर होने के अनेक प्रमाण हैं। अब तक अपठित सिंधु-सरस्वती सभ्यता में गौवंश संबंधी लाभों के अनेक प्रमाण मिले हैं। सिंधु-सरस्वती घाटी एवं वैदिक सभ्यता में गौ आधारित किसानी से स्पष्ट है कि भारत में गौ आधारित कृषि कितनी महत्वपूर्ण रही है। सिंधु-सरस्वती सभ्यता से जुड़े अब तक प्राप्त प्रमाणों के अनुसार इस सभ्यता काल में मानव बस्तियों के साथ खेत, अनाज की प्रजातियों आदि के बारे में कृषकों ने काफी तरक्की कर ली थी। सिंधु-सरस्वती सभ्यता से जुड़ी अब तक प्राप्त हुई मुद्राओं में बैल के चित्र अंकित हैं। इससे इस कालखंड में गाय-बैल के महत्व को समझा जा सकता है।

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खेत, जानवर, गाड़ी/ गाड़ी चालक, यव (बार्ली), चलनी, बीज आदि संबंधी चित्र भी इस दौर की कृषि पद्धति की कहानी बयान करते हैं। सिंधु-सरस्वती सभ्यता के अब तक प्राप्त प्रमाणों में अनाज का संग्रह करने के लिये कोठार (भंडार) की भी पुष्टि हुई है। संस्कृत लिपि में प्रयोग में लाए जाने वाले लाङ्गल, सीर, फाल, सीता, परशु, सूर्प, कृषक, कृषीवल, वृषभ, गौ शब्द अपना इतिहास स्वयं बयान करने के लिए पर्याप्त हैं।

 वैदिक संस्कृत और आधुनिक फारसी में भी बहुत से साम्य हैं। फारसी में उच्चारित गो शब्द का मूल अर्थ गाय से ही है। मतलब गाय भारत में पनपी कई संस्कृतियों का अविभाज्य अंग रही है। गाय के गोबर का खेत में खाद, मकान की लिपाई-पुताई में उपयोग भारत में विधि नहीं बल्कि परंपरा का हिस्सा है। रसोई में चूल्हे को सुलगाने से लेकर पूजन हवन तक गाय के गोबर के कंडों की अपनी उपयोगिता है। गाय की उपयोगिता इस बात से भी प्रमाणित होती है कि पुरातन कृषि मेें गौपालक को दूध, दही, छाछ, मक्खन, घी का पौष्टिक आहार प्राप्त होता था वहीं खेती कार्य के लिए तगड़े बैल भी गाय से प्राप्त होते थे।

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खेत में हल जोतने, अनाज ढोने, गाड़ी खींचने के लिये बैलों का उपयोग पुराने समय से भारत में होता रहा है। खेत की सिंचाई के लिए रहट चलाने में भी बैलों की तैनाती रहती थी।

कभी चलता था 24 बैलों वाला हल गौवंश से मिली इंसान, शहर को पहचान कामधेनु करे इतनी कामनाओं की पूर्ति

24 बैलों वाला हल

कई हॉर्स पॉवर वाले आज के प्रचलित आधुनिक ट्रैक्टर का काम पुराने समय में बैल करते थे। पुरातन ग्रंथों में दो, छह, आठ, बारह, यहां तक कि, 24 बैलों वाले भारी भरकम हलों का भी उल्लेख है।

गाय के नाम अनेक

आपको अचरज होगा कि अनेक शब्दों, नामों का आधार गाय से संबंधित है। गोपाल, गोवर्धन, गौशाला, गोत्र, गोष्ठ, गौव्रज, गोवर्धन, गौधूलि वेला, गौमुख, गौग्रास, गौरस, गोचर, गोरखनाथ (शब्द अभी और शेष हैं) जैसे प्रतिष्ठित शब्दों की अपनी विशिष्ट पहचान है। उपरोक्त वर्णित शब्दों से उसकी प्रकृति की पहचान सुनिश्चित की जा सकती है। जैसे गौधूली बेला से सूर्यास्त के समय का भान होता है, इसी तरह गाय के बछड़े को वसु कहा जाता है। इससे ही भगवान श्रीकृष्ण के पिता का नाम वसुदेव रखा गया। हिंदुओं के प्रमुख त्यौहार दीपावली के कुछ दिन पहले वसुबारस मनाकर गौवंश का पूजन कर पशुधन के प्रति कृतज्ञता जताई जाती है।

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ऋग्वेद काल में भी रथों में बैल जोतने का जिक्र है। मतलब गाय कृषक, कृषि के साथ ही ग्राम वासियों का प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष तरीके से सहयोगी रही है। गाय और बैल पुरातन काल से भारतीय जनजीवन का आधार रहे हैं। गाय की इन बहुआयामी उपयोगिताओं के कारण ही गौमाता को ‘कामधेनु’ भी कहा जाता है। मानव की इतनी सारी कामनाएं पूरी करने वाली बहुउपयोगी ‘कामधेनु’ (इच्छा पूर्ति करने वाली गाय) वर्तमान मशीनी युग (कलयुग) में और अधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है।

गबरबंद

प्राचीन भारत में पानी रोकने के लिए मिट्टी पत्थर से बनाए जाने वाले गबरबन्द को बनाने में गोबर, मिट्टी, घासफूस का उपयोग किया जाता था। महाभारत में गायों की गिनती से संबंधित घोषयात्रा, गोग्रहण का भी उल्लेख है।

गौ अधारित खेती एवं फसल चक्र

भगवान श्रीकृष्ण के पिता का नाम जहां गौवंश पर आधारित वसुदेव है, वहीं उनके भाई बलराम को ‘हलधर’ भी कहा जाता है। हल बलराम का अस्त्र नहीं, बल्कि कृषि कार्य में उपयोगी था। इससे उस कालखंड की खेती-किसानी के तरीकों का भी बोध होता है।

चक्र का महत्व समझिये

प्राचीन भारत में बैल गाड़ियों में प्रयुक्त होने पहिये, कुएं से पानी खींचने के लिये रहट में लगने वाला चक्र, कोल्हू के बैल की चक्राकार परिक्रमा के अपने-अपने महत्व हैं। मतलब कृषि की सुरक्षा में भी चक्र महत्वपूर्ण है। खेती के महत्वपूर्ण चक्र को काल या ऋतु चक्र कहा जाता है। 

 भारत के पूर्वज किसानों ने साल में मौसम के बदलाव के आधार पर फसल चक्र का तक निर्धारण कर लिया था। ऋतुचक्र के मुताबिक ही किसान रवि और खरीफ की फसल का निर्धारण करते आए हैं। बीज बोने, क्यारी बनाने आदि में गौवंश का उल्लेखनीय उपयोग होता आया है। गौ एवं पशु पालन के लिए भी ऋतु चक्र में पूर्वजों ने बहुमूल्य व्यवस्थाएं की थीं। फसल चक्र का खेती, कृषि पैदावार के साथ ही गौ एवं अन्य पशु पालन से पुराना बेजोड़ नाता रहा है।

गौ अधारित खेती

भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में गौपालन, गोकुल और बृंदाबन से जुड़ी बातें गौपालन के महत्व को रेखांकित करती हैं। पुरातन व्यवस्था में पालतू गायों का दूध, दही, मक्खन जहां अर्थव्यवस्था की धुरी था वहीं खेती में भी गाय की भूमिका अतुलनीय रही है। मानव उदर पोषण हेतु अनाज की पूर्ति के लिए गौ एवं पशु-पालन के साथ खेती किसानी के मिश्रित प्रबंधन का भारत में इतिहास बहुत पुराना है। गाय-बैलों के पालन का प्रबंध, खाद बनाने में गौमूत्र एवं गोबर का उपयोग, बीजारोपण, सिंचाई, खरपतवार नियंत्रण आदि के लिए भारतवासी पुरातनकाल से गौवंश का बखूबी उपयोग करते आए हैं।

1277 किसानों ने खंडवा में प्राकृतिक खेती के लिए पोर्टल पर करवाया पंजीकरण

1277 किसानों ने खंडवा में प्राकृतिक खेती के लिए पोर्टल पर करवाया पंजीकरण

खंडवा जिले में नर्मदा नदी को प्रदूषण से बचाने के लिए प्राकृतिक खेती करना आवश्यक है. मध्यप्रदेश सरकार ने प्राकृतिक खेती में इच्छुक किसानों के लिए एक वेबसाइट बनाई है. जो भी किसान प्राकृतिक खेती के लिए रजिस्ट्रेशन करना चाहता है वो प्राकृतिक कृषि पद्धति - किसान कल्याण तथा कृषि विकास विभाग मध्यप्रदेश  के आधिकारिक वेबसाइट: http://mpnf.mpkrishi.org/ पर जाकर रजिस्ट्रेशन करवा सकते है.

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प्राकृतिक खेती के लिए खंडवा जिले से 1277 किसान, खरगोन से 2052, बड़वानी जिले से 2130 किसान प्राकृतिक खेती के लिए आगे आए. 1223 कृषि अधिकारी, कर्मचारी व किसानों को प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए शामिल किया गया है.

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करोड़ों रुपए बचेंगे कीटनाशक, खाद के कम इस्तमाल से

जैसा कि हम सब जानते है की आज - कल खेती में खाद और कीटनाशकों का इस्तमाल होता है. खाद और कीटनाशक खरीदने के लिए रुपए भी लगते है. कृषि अधिकारियों के मुताबिक ये लगभग 9000-9500 रुपए प्रति हेक्टेयर खाद के लिए और 4000-5000 कीटनाशक के लिए लगते है. यदि दोनों को मिलाया जाए तो ये लगभग 1400-1500 रुपए होते है. यही पूरे जिले का मिलाए तो करोड़ों होते है. वहीं यदि इसका इस्तमाल कम कर दिया जाए तो करोड़ों का फायदा होगा.

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कितने किसानों ने कौन - कौन जिले से पंजीकरण करवाया है

इस योजना में बहुत से किसानों ने अपना सहयोग दिखाया है. जैसे- इंदौर से 1567, बुरहानपुर से 684, खरगोन से 2052, बड़वानी से 2130, खंडवा से 1277, धार से 836, आलीराजपुर से 1389, झाबुआ से 958. कुल मिलाकर - 10893 किसानों ने प्राकृतिक खेती के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया.  

देश में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा, 30 फीसदी जमीन पर नेचुरल फार्मिंग की व्यवस्था

देश में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा, 30 फीसदी जमीन पर नेचुरल फार्मिंग की व्यवस्था

भारत में किसानों का रुझान प्राकृतिक खेती (प्राकृतिक कृषि पद्धति) से धीरे धीरे हटते जा रहा है। सरकार किसानों का ध्यान जैविक खेती की ओर बढ़ा रही है। जैविक खेती करने के लिए सरकार नई नई योजनाएं लागू कर रही है। 

और सरकार के इन प्रयासों का असर भी किसानों पर हुआ है। किसानों का ध्यान धीरे-धीरे जैविक खेती की ओर जा रहा है। 

ऐसे में सरकार खेती को नुकसान पहुंचाए बिना, भारत में 2030 तक जैविक खेती का रकबा 30 फ़ीसदी तक बढ़ सकता है। जो कि फिलहाल में केवल 15% ही है। लेकिन 2020 तक 30 फीसदी जमीन पर जैविक खेती करने का अनुमान लगाया जा रहा है।

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भारत सरकार पर्यावरण संतुलन बनाए रखने के लिए किसानों को जैविक खेती की ओर ले जा रही है। हमारे देश में जैविक खेती का रकबा 15% है जिसे 30% करने की तैयारी की जा रही है। 

इसके साथ ही अनुमान लगाया जा रहा है कि जैविक खेती करने से उत्पादन में कमी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। और अगर किसी कारणवश ऐसा हो जाता है तो इसकी भरपाई उर्वरक सब्सिडी में कमी से की जाएगी। 

ऐसे में भारत में खाद्य समस्या को लेकर धीरे-धीरे जैविक खेती का विस्तार किया जाएगा। भारत के मध्य प्रदेश राजस्थान और उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में कोल खेती का जैविक खेती के रूप में 6 फ़ीसदी तक बढ़ाया जा सकता है।

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भारत में खाद्य उत्पादन बढ़ रहा है :

रिपोर्ट के मुताबिक भारत में यह कार्य श्रीलंका से सबक लेते हुए किया जाएगा क्योंकि श्रीलंका में उर्वरक के इस्तेमाल को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया था जिसके कारण श्रीलंका में खाद्य संकट पैदा हो गया। 

क्योंकि देश का खाद्य उत्पादन पिछले कई वर्षों में 3% से अधिक की दर से बढ़ रहा है इसके साथ ही जनसंख्या वृद्धि दर 1.5% से भी कम है ऐसे में खाद्य की घरेलू मांग में भी कमी आ रही है।

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कुल उत्पादन का कितना निर्यात :

अगर रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल करना बंद हो जाएगा तो हमारे देश में खाद्य संकट पैदा हो सकता है जिससे खाद उत्पादन में कमी आती है। लेकिन भारत उत्पादन कम होने पर धीरे-धीरे आगे बढ़ने की स्थिति में है। 

जानकारी के मुताबिक भारत में खेती के कुल उत्पादन का 6 से 7 फ़ीसदी तक निर्यात किया जाता है। खाद्यान्नों की वापस शॉपिंग करने की नीति के कारण देश खाद्य संकट और कीमतों के झटके से बच सकता है। 

क्योंकि गंगा नदी के किनारे स्थित खेतों में पूरे देश में रसायन मुक्त खेती को बढ़ावा दिया जाएगा। लेकिन हमारा देश अभी उस स्थिति तक नहीं पहुंच पाया है जहां वह बफर स्टॉकिंग और खरीद व्यवस्था को छोड़ सके।

केंद्रीय कृषि मंत्री ने NMNF पोर्टल का किया शुभारंभ

केंद्रीय कृषि मंत्री ने NMNF पोर्टल का किया शुभारंभ

केंद्रीय कृषि मंत्री ने एनएमएनएफ (NMNF) नामक पोर्टल का शुभारंभ कल दिल्ली के कृषि भवन में राष्ट्रीय प्राकृतिक कृषि मिशन की संचालन समिति की बैठक में की। 

नेशनल मिशन ऑन नेचुरल फार्मिंग नामक पोर्टल का शुभारंभ करने का मुख्य उद्देश प्राकृतिक खेती को आगे बढ़ाने का है, जिसे पारंपरिक खेती के रूप में भी जाना जाता है। यह एक रासायनिक मुक्त कृषि पद्धति है। 

केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कल नई दिल्ली के कृषि भवन में राष्ट्रीय प्राकृतिक कृषि मिशन की संचालन समिति की पहली बैठक की अध्यक्षता की। तोमर ने बैठक के दौरान एनएमएनएफ पोर्टल का शुभारंभ किया। 

उन्होंने सभा को संबोधित करते हुए कहा की प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने की आज के इस दौर में सबसे ज्यादा जरूरत है। यह खेती ऑन-फार्म बायोमास रीसाइक्लिंग पर आधारित है, जिसमें बायोमास मल्चिंग पर विशेष जोर दिया जाता है। खेत में गाय के गोबर-मूत्र आदि का प्रयोग करके खेती की जाती है एवं सभी सिंथेटिक रासायनिक आदानों से बचाया जाता है।

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उन्होंने कहा कि देश के प्राकृतिक खेती के मिशन को सबके सहयोग से अंजाम दिया जाएगा। इस संबंध में, उन्होंने अधिकारियों को राज्य सरकारों और केंद्रीय विभागों के साथ मिलकर काम करने का निर्देश दिया ताकि किसानों से जुड़ाव को सुगम बनाया जा सके, जिससे किसान अपने उत्पादों को अधिक आसानी से बेच सकें। 

बैठक में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री गिरिराज सिंह, जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, उत्तर प्रदेश के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही, केंद्रीय कृषि सचिव मनोज आहूजा और विभिन्न मंत्रालयों के वरिष्ठ अधिकारी मौजूद थे। 

केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय के द्वारा लॉन्च किया गया यह पोर्टल का लिंक है (http://naturalfarming.dac.gov.in/) जिसमे इस मिशन की सभी जानकारी, संसाधन, कार्यान्वयन प्रगति, किसान पंजीकरण, ब्लॉग और किसानों के लिए अन्य उपयोगी जानकारी शामिल है। यह वेबसाइट देश में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने में भी मदद करेगी।

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केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने बैठक के दौरान कहा कि प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए अच्छी पहल की गई है। बैठक के दौरान उन्होंने इस संबंध में सुझाव भी दिए। जल शक्ति मंत्री शेखावत ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की देखरेख में प्राकृतिक खेती के लिए गंगा के किनारे काम किया जा रहा है। 

पहले चरण में, जल शक्ति मंत्रालय ने सहकार भारती के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर करके 75 सहकार गंगा गांवों की पहचान की है और किसानों को प्रशिक्षण भी प्राप्त कराया जा रहा है। 

यूपी के कृषि मंत्री शाही के मुताबिक, राज्य में प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए नमामि गंगे परियोजना शुरू हो गई है, प्रत्येक ब्लॉक में काम करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है और मास्टर प्रशिक्षण हुआ है। 

अब तक 7.33 लाख किसानों ने प्राकृतिक खेती की शुरुआत की है। किसान स्वच्छता और प्रशिक्षण के लिए लगभग 23 हजार कार्यक्रम आयोजित किए गए हैं। चार राज्यों में गंगा के किनारे 1.48 लाख हेक्टेयर भूमि पर प्राकृतिक खेती की जा रही है। उम्मीद है की आनेवाले समय में किसानों के लिए यह मिशन रामबाण साबित होगा।